Putr abhilaashtak stotr paath: ऋषिवर विश्वानर की धर्मपत्नी शुचिष्मती ने अपने पति से प्रार्थना की कि ‘मेरे शिव समान पुत्र हो’। यह सुनकर विश्वानर क्षणभर तो चुप रहे, फिर बोले ‘एवमस्तु’ और उन्होंने स्वयं ही 12 महीने तक फलाहार, जलाहार और वाय्वाहार के आधार पर घोर तप किया। फिर काशी जाकर विकरादेवी तथा सिद्धिविनायक के समीप चंद्रकूप में स्नान करके वही वीरेश्वर के समीप अभिलाषाष्टक के पाठ मंत्रों से बड़ी श्रद्धा पूर्वक स्तुति की। इससे भगवान शंकर प्रसन्न हो गए और कुछ ही दिन बाद विश्वानर की शुचिष्मती को गर्भ रह गया।
समय आने पर उन्होंने शिवसदृश पुत्र गृहपति (अग्नि) को जन्म दिया। अतः संतान की कामना वाले पति-पत्नी को चाहिए कि प्रातः शौच-स्नान स्नान आदि से निवृत हो शिव जी का पूजन करें और इस स्तोत्र का पाठ 8 या 28 बार करें। इस प्रकार एक वर्ष पर्यन्त पाठ करते रहने से पुत्र प्राप्ति होता है।

अभिलाष्टक स्तोत्र पाठ
एकं ब्रह्मैवाद्वितीयं समस्तं सत्यं सत्यं नेह नानास्ति किञ्चित्।
एको रुद्रो न द्वितीयोऽवतस्थे तस्मादेक त्वां प्रपद्ये महेशम् ||1||
अर्थ – यहाँ सब कुछ एकमात्र अद्वितीय ब्रह्म ही है। यह बात सत्य है, सत्य है। इस विश्व में भेद या नानात्व कुछ भी नहीं है। इसलिये एक अद्वितीयरूप आप महेश्वर की मैं शरण लेता हूँ ||1||
एक: कर्ता त्वं हि विश्वस्य शम्भो नाना रूपेष्वेकरूपोऽस्परूपः।
यद्वत्प्रत्यस्वर्क एकोऽप्यनेक-स्तस्मान्नान्यं त्वां विनेशं प्रपद्ये ||2||
अर्थ – शम्भो! आप रूपरहित अथवा एकरूप होकर भी जगत् के नाना स्वरूपों में अनेक की भाँति प्रतीत होते हैं। ठीक उसी तरह, जैसे जल के भिन्न-भिन्न पात्रों में एक ही सूर्य अनेकवत् दृष्टिगोचर होता है। अत: आपके सिवा और किसी स्वामी की मैं शरण नहीं लेता॥2॥
रज्जौ सर्पः शुक्तिकायां च रूप्यं नैरः पुरस्तन्मृगाख्ये मरीचौ।
यद्वत्तद्वद् विश्वगेष प्रपञ्चो यस्मिन् ज्ञाते तं प्रपद्ये महेशम् ||3||
अर्थ – जैसे रज्जु का ज्ञान हो जाने पर सर्प का भ्रम मिट जाता है, सीपी का बोध होते ही चाँदी की प्रतीति नष्ट हो जाती है तथा मृगमरीचिका का निश्चय होने पर उसमें प्रतीत होने वाली जलप्रवाह असत्य सिद्ध हो जाता है, उसी प्रकार जिनका ज्ञान होने पर सब ओर प्रतीत होने वाला यह सम्पर्ण प्रपंच उन्हीं में विलीन हो जाता है, उन महेश्वर की मैं शरण लेता हूँ॥3॥
तोये शैत्यं दाहकत्वं च वह्मो तापो भानौ शीतभानौ प्रसादः।
पुष्पे गन्धों दुग्धमध्ये च सर्पिर्यत्तच्छम्भो त्वं ततस्त्वां प्रपद्ये ||4||
अर्थ – शम्भो ! जैसे जल में शीतलता, अग्नि में दाहकता, सूर्य में ताप, चन्द्रमा में आह्लाद, पुष्प में सुगन्ध तथा दूध में घी स्थित है, उसी प्रकार सम्पूर्ण विश्व में आप व्याप्त हैं, इसलिये मैं आपकी शरण लेता हूँ ॥4॥
शब्द गृहणास्यश्रवास्त्वं हि जिधे-रप्राणस्त्वं व्यंघिरायासि दूरात्।
व्यक्षः पश्येस्त्वं रसज्ञोऽप्यजिह्वः कस्त्वां सम्यग् वेत्त्यतस्त्वां प्रपद्ये ||5||
अर्थ – आप बिना कान के ही शब्द को सुनते हैं, नासिका के बिना ही सूंघते हैं, पैरों के बिना ही दूर से चले आते हैं, नेत्रों के बिना ही देखते और रसना के बिना ही रस का अनुभव करते हैं, आपको यथार्थ-रूप से कौन जानता है? अतः मैं आपकी ही शरण लेता हूँ॥5॥
नो वेदस्त्वामीश साक्षादि वेद नो या विष्णुर्नों विधाताखिलस्य।
नो योगीन्द्रा नेन्द्रमुख्याश्च देवा भक्तो वेद त्वामतस्त्वा प्रपद्ये ||6||
अर्थ – ईश! वेद भी आपके साक्षात् स्वरूप को नहीं जानता, भगवान् विष्णु, सबके स्रष्टा ब्रह्मा भी आपको नहीं जानते, बड़े-बड़े योगीश्वर तथा इन्द्र आदि देवता भी आपको यथार्थरूप से नहीं जानते, परंतु आपका भक्त आपकी ही कृपा से आपको जानता है, अतः मैं आपकी ही शरण लेता हूँ॥6॥
नो ते गोत्र नेश जन्मापि नाख्या नो वा रूपं नैव शील न देशः।
इत्यंभूतोऽपीश्वरस्तवं त्रिलोक्याः सर्वान् कामान् पूरयेस्तद् भजे त्वाम् ||7||
अर्थ – ईश! आपका न कोई गोत्र है, न जन्म है, न नाम है, न रूप है, न शील है और न कोई स्थान ही है, ऐसे होते हुए भी आप तीनों लोकों के स्वामी हैं और सभी मनोरथों को पूर्ण करते हैं, इसीलिये मैं आपकी आराधना करता हूँ॥7॥
त्वत्तः सर्व त्वं हि सर्व स्मरारे त्वं गौरीशस्त्वं च नग्नोऽतिशान्तः।
त्वं वै वृद्धस्त्वं युवा त्वं च बालस्तत्किं यत्त्वं नास्यतस्त्वां नतोऽस्मि ||8||
अर्थ – कामारे! आपसे ही सब कुछ है, आप ही सब कुछ हैं, आप ही पार्वतीपति हैं, आप ही दिगम्बर हैं और अति शान्तस्वरूप हैं, आप ही वृद्ध हैं, आप ही तरुण हैं और आप ही बालक हैं। कौन-सा ऐसा तत्त्व है, जो आप नहीं हैं, सब कुछ आप ही हैं, अतः मैं आपके चरणों में मस्तक नवाता हूँ ॥8॥